Tuesday, February 8, 2011

सूपर हिट फिल्म "हिवरे बाजार" खुद देखे और गावं गावं में दिखाएँ

यह फिल्म वस्तुत: 23 मिनट की एक डाक्यूमेंट्री फिल्म है जो महाराष्ट्र के हिवरे बाजार गांव में पिछले 20 साल में आए चमात्कारिक परिवर्तन का मंत्र खुद उस गांव के लोगों की जबानी बयां करती है।

फिल्म : हिवरे बाजार में स्वराज
अवधि : 23 मिनट
सहयोग राशि : 20 रुपए (डाक से मंगाने के लिए 50 रुपए पैकिंग व डाकखर्च अलग)
सीडी/डीवीडी मंगवाने के लिए संपर्क करें- 09968450971


गांव देखो! स्वराज देखो! हिवरे बाजार देखो

Hiware Bazar-विमल कुमार सिंह
फिल्में सपनों की दुनिया में ले जाती हैं, हर उम्र और वर्ग के लोग फिल्में देख-देखकर सपनों में जीते रहे हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार, मध्यप्रदेश आदि कई राज्यों के गांवों में आजकल एक ऐसी फिल्म लोकप्रिय हो रही है जो वर्षों पुराने एक सपने को सच करने के लिए प्रेरित कर रही है, यह सपना है स्वराज का सपना। देश में सच्चे लोकतंत्र की स्थापना का सपना, जहां आम आदमी व्यवस्था का मालिक सिर्फ लोकतंत्र की परिभाषा में ही नहीं बल्कि हकीकत में भी हो।




यह सपना आजादी के संघर्ष में गांधी जी सहित तमाम लोगों ने देखा था, उसके बाद भी अनेक नेताओं और सामाजिक मनीषियों ने यह सपना देखा कि देश में आजादी तो आ गई लेकिन अब स्वराज्य भी स्थापित हो, जनता का राज स्थापित हो।
यह फिल्म वस्तुत: 23 मिनट की एक डाक्यूमेंट्री फिल्म है जो महाराष्ट्र के हिवरे बाजार गांव में पिछले 20 साल में आए चमात्कारिक परिवर्तन का मंत्र खुद उस गांव के लोगों की जबानी बयां करती है। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में बसा यह हरा-भरा गांव आज ग्रामीण विकास का एक ऐसा आदर्श बन गया है जिसे देखने देश-विदेश से रोजाना करीब-करीब 200 लोग आ रहे हैं, जबकि 1989 तक यह गांव पूरी तरह सूखाग्रस्त था, लोग भूखे मर रहे थे और शराब पीकर आपस में लड़ते-झगड़ते रहते थे। इस गांव के लोगों का मानना है कि यह चमत्कार इसलिए हुआ क्योकि यहां हर महीने कम से कम एक ग्राम सभा की एक बैठक जरूर होती है। ग्राम सभा की बैठक में ही तय होता है कि गांव की जरूरतें क्या हैं और वो कैसे पूरी होंगी? ग्राम सभा फैसले लेती है और पंचायत उन पर अमल करती है। आज इस गांव में पानी है, समृद्धि है, मेल-मिलाप है, शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, सड़क की बेहतरीन व्यवस्था है। यह सब अपने दम पर है, फिल्म में दिखाया गया गांव का प्रवेश द्वार और इसके ठीक सामने संसद की शक्ल में बना ग्राम चौपाल भवन जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है ”ग्राम संसद” लोगों को सहज ही आकर्षित करता है। यह गांव गांधी के ग्राम गणराज्य का साक्षात नमूना है।
स्वराज्य की बात लंबे समय से किसी न किसी रूप में समाज में चलती रही है। लोकमान्य तिलक ने कहा, गांधी ने कहा, पंचायती राज के रूप में आजाद भारत की सरकारों ने कहा, समाजसेवियों ने कहा… सबने कहा, लेकिन स्वराज व्यवस्था हो तो गांव कैसा होगा, ग्राम गणराज्य कैसा होगा? इसकी तस्वीर को इतिहास के पन्नों में या विद्वतापूर्ण लेखों से निकालकर हमारे सामने लाती है यह फिल्म जिसका नाम है ”हिवरे बाजार में स्वराज।”
यह फिल्म स्वराज अभियान से जुड़े कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने तैयार की है। जाहिर है कि इसका मकसद गांव-गांव यह संदेश पहुंचाना है कि दिल्ली और राजधानियों की सरकारों के भरोसे गांवों का विकास नहीं हो सकता। इसके लिए हरेक गांव के लोगों को पहल करनी होगी। फिल्म का प्रदर्शन बड़े पैमाने पर गांव-गांव जाकर किया जा रहा है। इसमें विभिन्न आंदोलनों से जुड़े आंदोलनकारी, सामाजिक संस्थाएं और यहां तक कि सरकारों के पंचायती राज विभाग भी लगे हैं। 2 अक्टूबर 2009 को पंचायती राज की सथापना की स्वर्ण जयंती मानते हुए केंद्र सरकार के पंचायती राज विभाग ने यह फिल्म विज्ञान भवन में आए हजारों ग्राम प्रधानों के सम्मेलन में दिखाई। वहीं से होती हुई यह राज्यों के पंचायती राज्य विभागों तक भी पहुंची है और वहां के सम्मेलनों में दिखाई जा रही है। हाल ही में लोकसभा चैनल पर स्वामी अग्निवेश के कार्यक्रम में भी यह फिल्म ज्यों की त्यों प्रसारित की गई।
लेकिन फिल्म का असली उपयोग स्वराज अभियान को आगे बढ़ाने में किया जा रहा है। हरियाणा और उत्तर प्रदेश में कुछ ही महीनों बाद होने वाले पंचायत चुनावों को ध्यान में रख कर यह फिल्म इन दोनों राज्यों के गांव-गांव में दिखाई जा रही है, इसके देखने के बाद लोग खुद आह भरते हुए बात करने लगते हैं कि काश! हमारा गांव भी ऐसा हो पाता। इस बातचीत को आगे बढ़ाते हुए नौजवान साथी अपने गांव में भी स्वराज लाने का यानि कि ग्राम सभा सुचारू कराने का तथा गांव का हर फैसला ग्राम सभा में ही कराने का इरादा करते हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में काम कर रहे उत्साही कार्यकर्ता मनोज आर्य अब तक अपने जिले के 20 प्रमुख गांवों में यह फिल्म दिखा चुके हैं। उनका काम करने का तरीका बड़ा सीधा-सादा है। वो फिल्म की दो-तीन सीडी लेकर उन गांवों में जाते हैं जहां उनके पहले से कुछ मित्र हैं। उन्हीं के जरिए वे गांव में प्रचारित करवा देते हैं कि फलां तारीख को गांव के बारे में एक फिल्म दिखायी जाएगी। इसके लिए आवश्यक सीडी प्लेयर, टीवी सेट और बैटरी या जनरेटर का इंतजाम प्राय: गांव वाले ही कर देते हैं। अब तक जहां कहीं मनोज ने फिल्म दिखायी है, वहां ग्रामीणों की प्रतिक्रिया बड़ी सकारात्मक रही है। लोग पूरी तन्मयता के साथ फिल्म देखते हैं। एक बार एक गांव में फिल्म दिखा रहे थे कि बैटरी में कुछ खराबी आ गई। तब तक फिल्म आधी ही चल पायी थी। मनोज ने सोचा कि चलो आधी फिल्म के बारे में मौखिक रूप से बता देते हैं लेकिन ग्रामीण पूरी फिल्म देखने के लिए बेताब थे। एक ग्रामीण उठा और जाकर अपने ट्रैक्टर से बैटरी निकाल लाया और उसी से लोगों ने पूरी फिल्म देखी। फिल्म देखने के बाद कई युवा फिल्म के प्रचार-प्रसार के लिए काम करने में भी रुचि दिखाते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी हिवरे बाजार की सीडी जोर-शोर से दिखाई जा रही है।
फैजाबाद में हुई एक बैठक में फैजाबाद, आजमगढ़, सुल्तानपुर्म बस्ती आदि जिलों के कार्यकर्ता पीपुल्स एक्शन फार नेशनल इंटीग्रेशन (पानी संस्था) के कार्यक्रम में इकट्ठा हुए तो उन्होंने इसके काफी दिलचस्प अनुभव सुनाए। प्रतापगढ़ से आई सुशीला मिश्र ने जब एक गांव में महिलाओं के समूह को यह फिल्म दिखाई तो गांव की महिलाओं ने उन्हीं से आग्रह किया कि ”दीदी इस बार आप ही प्रधान बन जाओं। फिर हम भी अपने गांव को हिवरे बाजार की तरह बना लेंगे।” पानी संस्था से जुड़े शशि भूषण अब तक इस फिल्म को विभिन्न जिलों के 70-80 स्थानों पर दिखा चुके हैं। जहां-जहां उन्होंने सीडी दिखायी, वहां के लोगों में कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा हुआ है। कुछ लोग ऐसे भी मिले जो कहते हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों की परिस्थितियां महाराष्ट्र से अलग हैं। इसलिए हिवरे बाजार का प्रयोग यहां सफल नहीं हो सकता। हालांकि ऐसी नकारात्मक बात करने वाले कम ही मिले हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही चंदौली, कुशीनगर आदि जिलों में काम कर रहे जय शंकर और केशव ने यह फिल्म खुद गांव-गांव जाकर दिखाने का अभियान चला रखा है। केशव बताते हैं कि फिल्म देखकर गांव में एक बात साफ हो जाती है कि आने वाला पंचायती राज चुनाव एक मौका है अपने गांव में स्वराज लाने का।
उधर हरियाणा के गांवों में भी इस फिल्म को आधार बनाते हुए आंदोलन खड़ा करने का सिलसिला जारी है। फतेहाबाद के जिले समैण गांव में तो युवाओं ने सीडी दिखाने के लिए बाकायदा एक थ्री-व्हीलर तैयार कर लिया है। हिसार में हुई एक बैठक में इकट्ठा हुए सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बताया कि इसमें कालेजों के छात्र-छात्राएं भी गांव-गांव जा रहे हैं।
फिल्म के निर्देशक मनीष सिसोदिया के मुताबिक यह फिल्म एक सच्चे लोकतंत्र की झलक दिखाती है। सच्चे लोकतंत्र अर्थात स्वराज का मतलब जब लोगों की समझ में आ जाएगा, तब उसके लिए लोगों के मन में चाहत पैदा होगी और यदि एक बार चाहत पैदा हो गयी तो लोग उसे निश्चित रूप से हासिल भी कर लेंगे। भारत की जनता में वह दमखम मौजूद है।




आभार   :http://www.bhartiyapaksha.com/?p=9642

जहां बसता है गांधी का भारत



1_02हिवरे बाजार, न केवल गांधी के सपने को साकार करता है बल्कि घने अंधेरे में रोशनी की किरण भी दिखाता है। क्या वह दिन आएगा जब देश के सात लाख गांवों में हिवरे बाजार की तरह अपना ग्राम स्वराज होगा?
एक ऐसा गांव जिसपर व्यापक मंदी के इस दौर में का कोई असर नहीं है। एक ऐसा गांव जहां से अब कोई रोजगार के लिए पलायन नहीं करता। एक ऐसा गांव जहां पर शिक्षक स्कूल से गायब नहीं होते। एक ऐसा गांव जहां पर आंगनवाड़ी रोज खुलती है। एक ऐसा गांव जहां राशन की दुकान ग्राम सभा के निर्देशानुसार संचालित होती है। एक ऐसा गांव जहां की सड़कों पर गंदगी नहीं होती है। एक ऐसा गांव जिसे जल संरक्षण के लिए 2007 का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। इस गांव की सत्ता दिल्ली या बंबई में बैठी कोई सरकार नहीं बल्कि उसी गांव के लोगों द्वारा संचालित होती है। यह किसी यूटोपिया की बात नहीं है न ही कोई सपना है। यह सब साकार रूप ले चुका है, महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के गांव हिवरे बाजार में। दूसरे शब्दों में कहें तो हिवरे बाजार ग्राम स्वराज का प्रतिनिधि गांव तथा गांधी के सपनों का भारत है।
ऐसा नहीं है कि यह गांव हमेशा से ऐसा ही था। आज से 20 वर्ष पहले तक यह एक उजाड़ गांव था। न रोजगार का कोई साधन था न ही खेती के लिए उपजाऊ जमीन थी। इसलिए गांव में र्कोई रहना नहीं चाहता था। लेकिन 1989 में हिवरे बाजार के ही 30-40 पढ़े-लिखे नौजवानों ने यह बीड़ा उठाया कि क्यों न अपने गांव को संवारा जाए। पहले इस बारे में उन लोगों ने गांववालों से बातचीत की, तो कल के छोकरे कहकर बात को सिरे से नकार दिया गया। लेकिन युवकों ने हिम्मत न हारी और अपनी बात टिके रहे। फिर गांव वालों ने भी उनकी बातों को गंभीरता से लिया और 9 अगस्त,1989 को नवयुवकों को एक वर्ष के लिए गांव की सत्ता सौंपी गई। सत्ता मिली तो नवयुवकों ने अपनी कमान सौंपी पोपट राव पवार को। गौरतलब है कि पोपट राव पवार उस समय महाराष्ट्र की ओर से प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेलते थे।
नवयुवकों ने इस एक वर्ष को अवसर के रूप में देखा। गांव में पहली ग्रामसभा की गई और प्राथमिकताएं तय की गर्इं। बिजली, पानी के बाद बात शिक्षा की आई क्योंकि गांव में शिक्षा की स्थिति बहुत ही खराब थी। इतना ही नहीं विद्यालय के शिक्षक छात्रों से शराब मंगवाकर पीते थे। न तो खेल का मैदान था और न ही छात्रों के बैठने की व्यवस्था। ग्रामसभा में सबसे पहले युवकों ने गांववालों से अपील की कि वे अपनी बंजर पड़ी जमीन को विद्यालय के लिए दान में दें। पहले सिर्फ दो ही परिवार जमीन देने के लिए तैयार हुए लेकिन बाद कई लोग आगे आ गए। विद्यालय में एक अतिरिक्त कमरे के निर्माण के लिए सरकार से स्वीकृत 60,000 रुपए की राशि आई। गांववालों के श्रमदान और राशि के उचित नियोजन की बदौलत विद्यालय में दो कमरों का निर्माण किया गया। युवकों का यह कार्य गांववालों में विश्वास भरने के लिए काफी था।
एक वर्ष की तय समय सीमा खत्म हुई। नवयुवकों के कार्यों की समीक्षा हुई। गांववालों ने अब इन नवयुवकों को पांच वर्षों के लिए गांव की सत्ता सौंपने का निश्चय किया। अब पोपट राव पवार के कुशल नेतृत्व में युवकों ने गांव की आधारभूमि तैयार करना शुरू किया । गांव में खेतीबारी की व्यवस्था ठीक नहीं थी और न ही रोजगार की। जिसके चलते प्रति व्यक्ति सालाना औसत आय 800 रुपए थी। गांव में जिन लोगों के पास जमीन थी, वे भी केवल एक ही फसल उगा पाते थे क्योंकि सिंचाई के लिए पानी का नितांत अभाव था। गांव में कुल मिलाकर 400 मि.मी. ही वर्षा होती थी। पोपट राव का कहना है कि हमलोगों ने सामूहिक रूप से इस विषय पर सोचना शुरू किया। पहले गांववाले वन विभाग द्वारा लगाए पौधों को काट कर अपने घर ले जाते थे। लेकिन जब ग्रामसभा ने तय किया कि जल, जंगल और जमीन के काम किए जाएंगे तो गांववालों ने 10 लाख पेड़ लगाए, जिसमें हमें 99 फीसदी सफलता प्राप्त हुई। अब इस जंगल में जाने के लिए वन विभाग को ग्रामसभा की अनुमति लेनी पड़ती है। पोपट राव के अनुसार ‘शुरू में ग्रामसभा के कई निर्णयों का बहुत विरोध हुआ। लेकिन हमने जोर देकर कहा कि गांव के हित में यह निर्णय ठीक होगा और इसके दूरगामी परिणाम सामने आएंगे। जैसे कि टयूबवेलकृका कृषि में उपयोग नहीं किया जाएगा और ज्यादा पानी वाली फसलें नहीं लगाई जाएंगी। गन्ना केवल आधे एकड़ में ही लगाया जाएगा, जिसका हरे चारे के रूप में उपयोग किया जा सकता है। हम सबने मिलकर जलग्रहण के क्षेत्र में काम करनाष्शुरू किया। कुछ सरकारी राशि और कुछ श्रमदान। इसके परिणामस्वरूप तीन चार वर्षों में वॉटरष्शेड ने अपना असर दिखानाष्शुरू किया। गांव का भू-जल स्तर बढ़ा और मिट्टी में नमी बढ़ने लगी। लोग अब दूसरी और तीसरी फसल भी उगा रहे हैं। अब यहां सब्जी भी उगाई जाती है। इतना ही नहीं भूमिहीनों को गांव में ही काम मिलने लगा है और लोगों का पलायन भी बंद हो गया है।’ गांव की ही मजदूर ताराबाई मारुति कहती है कि ‘पहले हमलोग मजदूरी करने दूसरे गांव जाते थे। आज हमारे पास 16-17 गायें हैं और हम 250-300 लीटर दूध प्रतिदिन बेचते हैं। कुल मिलाकर पूरे गांव से लगभग 5000 लीटर दूध प्रतिदिन बेचा जाता है। आज गांव की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 800 रुपए से बढ़कर 28000 रुपए हो गई है। यानी पांच व्यक्तियों के परिवार की वार्षिक औसत आय 1.25 लाख रुपए है।
पूरे देश में आंगनवाड़ियों का जो हाल है, वह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन हिवरे बाजार की आंगनवाड़ी लगभग आधे एकड़ में फैली है। आंगनवाड़ी की दीवारें बोलती प्रतीत होती हैं। इसके आंगन में फिसल पट्टी लगी है। पर्याप्त खेल-खिलौने हैं। प्रत्येक बच्चे के लिए पोषाहार हेतु अलग-अलग बर्तन व स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था है। बच्चों का नियमित स्वास्थ्य परीक्षण होता है। बच्चे कुपोषित नहीं हैं। गांववाले जानते हैं कि बच्चोें का मानसिक औरष्शारीरिक विकास 6 वर्ष की उम्र में ही होता है, इसलिए उनका मानना है कि आंगनवाड़ी बेहतर होनी चाहिए। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ईराबाई मारुति का कहना है कि जब इन बच्चों की जिम्मेवारी मेरे उपर है तो फिर मैं अपनी जिम्मेदारी से क्यों कतराऊं। अगर मैं कुछ भी गड़बड़ करती हूं तो मुझे ग्रामसभा में जवाब देना होता है। साथ ही वह बड़े गर्व से कहती है कि मेरी आंगनवाड़ी को केंद्र सरकार से सर्वश्रेष्ठ आंगनवाड़ी का पुरस्कार मिला है।
पोपट राव बताते हैं कि हमारे गांव में पहले से ही दो आंगनवाड़ी थी और ऊपर से तीसरी आंगनवाड़ी बनाने का आर्डर आया। हम लोगों ने ग्रामसभा में विचार किया कि हमारे यहां बच्चों कीे संख्या उतनी नहीं है कि तीसरी आंगनवाड़ी होनी चाहिए। फिर नए आंगनवाड़ी के लिए और अधिक संसाधन भी चाहिए। इसलिए हमने शासन को पत्र लिख कर तीसरी आंगनवाड़ीके प्रस्ताव को वापस लौटा दिया। इतना ही नहीं पहले बच्चों को पांचवीं के बाद से ही बाहर जाना पड़ता था, जिससे अधिकांश लड़कियां नहीं पढ़ पाती थीं। अब स्कूल हायर सेकेंड्री तक हो गया है। विद्यालय का समयष्शासन नहीं बल्कि ग्रामसभा तय करती है । विद्यालय में दोपहर का भोजन नियमित रूप से दिया जाता है। शिक्षिका शोभा थांगे का कहना है कि हम लोग ग्रीष्मकालीन अवकाश मेंभभी पढ़ाने आते हैं । यहां पढ़ाई किसी अच्छे प्राइवेट स्कूल से बेहतर होती है। यही कारण है कि आज हिवरे बाजार के ंविद्यालय में आसपास के गांव और शहरों से लगभग 40 प्रतिशत छात्र-छात्राएं पढ़ने आते हैं। गांव के सरपंच पोपट राव के अनुसार हमारे यहां शिक्षकों का ग्रामसभा में आना जरूरी है लेकिन चुनाव डयूटी में जाने की आवश्यकता नहीं है। हिवरे बाजार गांव में एएनएम आती नहीं है बल्कि यहीं रहती हैं। गांव के हर बच्चे का समय पर टीकाकरण होता है। प्रत्येक गर्भवती महिला को आयरन की गोलियां मुफ्त मिलती हैं।
गांव में राशन ग्रामसभा के निर्देशानुसार सबसे पहले प्रत्येक कार्डधारी को दिया जाता है। यदि उसके बाद भी राशन बच जाता है तो ग्रामसभा तय करती है कि इसका क्या होगा। राशन दुकान संचालक आबादास थांगे बहुत ही बेबाक तरीके से कहते हैं कि मुझे फूड इंस्पेक्टर को रिश्वत नहीं देनी होती है। पोपट राव कहते हैं कि अब बाहरी लोगों की नजर हमारी जमीन पर है। इसलिए हमने नियम बनाया कि हमारी जमीन गांव से बाहर के किसी व्यक्ति को नहीं बेची जाएगी। क्योंकि इससे गरीब हमेशा गरीब रहेगा और अमीर और अमीर हो जाएगा। इस गांव की खास बात यह है कि यहां एकमात्र मुसलिम परिवार के लिए भी मसजिद है, जिसे ग्रामसभा ने ही बनवाया है। सारे फैसले ग्राम संसद द्वारा लिए जाते हैं। इस ग्राम संसद की बनावट भी दिल्ली के संसद भवन की तरह है। सूचना के अधिकार जैसे कानूनों की यहां जरूरत ही महसूस नहीं होती। यहां पंचायत भवन में प्रतिमाह पैसों का पूरा लेखा-जोखा लिखकर टांग दिया जाता है। इतना ही नहीं साल के अंत में ग्रामसभा का पूरा ब्योरा गांववालों के सामने और बाहरी लोगों को बुलाकर बताया जाता है।
एक समय था जब इस गांव के नवयुवक यह बताने से डरते थे कि हम हिवरे बाजार के निवासी हैं। आज इस गांव के लोग गर्व से कहते हैं कि हम हिवरे बाजार के निवासी हैं। बाला साहेब रमेश ने तो अपने नाम के आगे ‘हिवरे बाजार’ लगा लिया है। आज इस गांव में न कोई शराब पीता है और ना ही यहां शराब बिकती है। हिवरे बाजार, न केवल गांधी के सपने को साकार करता है बल्कि घने अंधेरे में रोशनी की किरण भी दिखाता है। क्या वह दिन आयेगा जब देश के सात लाख गांवों में हिवरे बाजार की तरह अपना ग्राम स्वराज होगा?

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