Sunday, February 27, 2011

टाल क्षेत्र - मसुकदाना की खेती से किसान खुश

टाल क्षेत्र के किसान कल तक कम पैदावार होने और लागत भी न निकल पाने की शिकायत कर रहे थे, लेकिन अब वे परंपरागत खेती को बाय-बाय कहकर नई खेती अपना रहे हैं. मोकामा-टाल के अधिकांश किसान भले ही आज भी क्षेत्र के एक फसली और टाल योजना लागू न होने का
रोना रो रहे हों, लेकिन यहीं के कुछ किसान औषधीय पद्धति के सहारे सुखमय जीवन की एक नई इबारत लिखने का प्रयास कर रहे हैं. मोकामा के मोर गांव के दर्ज़नों किसान अब औषधीय खेती की उन्नत नस्ल मसुकदाना की खेती कर रहे हैं. नाममात्र लागत पर होने वाली मसुकदाना की खेती किसानों के लिए लाभप्रद साबित हो रही है. हैरानी की बात तो यह है कि मक्का के साथ लगने वाली यह फसल मात्र तीन माह में ही तैयार हो जाती है. इसे कोलकाता के कुछ व्यापारी प्रोत्साहित कर रहे हैं. मसुकदाना की खेती कर रहे मोर गांव के प्रगतिशील किसान एवं प्रखंड राजद अध्यक्ष कन्हैया चंद्रवंशी बताते हैं कि फसल की लागत नाममात्र है. मसुकदाने के बीज कोलकाता के व्यापारियों द्वारा मात्र पांच सौ रुपये प्रति किलो की दर से उपलब्ध कराए जाते हैं. ग़ौरतलब है कि एक कट्‌ठा ज़मीन में मात्र सौ ग्राम बीज की खपत होती है. एक बीघा ज़मीन में मात्र 2 किलो बीज लगते हैं और एक हज़ार रुपये का खर्च आता है. बुआई के बाद इसमें किसी प्रकार की दवा और रासायनिक खाद की आवश्यकता नहीं पड़ती. मसुकदाना की खेती मक्का की फसल के साथ जुलाई-अगस्त माह में होती है. मक्का की बुआई के साथ ही मसुकदाने के बीज बोए जाते हैं. तीन माह के बाद फसल तैयार होती है. मसुकदाने के पौधों के बड़े होने पर उसमें फलियां लग आती हैं. शुरू में फलियां हरी-हरी होती हैं. ज्यों-ज्यों फसल तैयार होती है, फलियों का रंग भूरा होते-होते लाल हो जाता है. पत्तियां जब सूखने लगती हैं तो जड़ समेत पौधे को उखाड़ कर फलियों को अलग कर लिया जाता है और उन्हें सुखाया जाता है.
हैरानी की बात तो यह है कि मक्का के साथ लगने वाली यह फसल मात्र तीन माह में ही तैयार हो जाती है. इसे कोलकाता के कुछ व्यापारी प्रोत्साहित कर रहे हैं. मसुकदाना की खेती कर रहे मोर गांव के प्रगतिशील किसान एवं प्रखंड राजद अध्यक्ष कन्हैया चंद्रवंशी बताते हैं कि फसल की लागत नाममात्र है.
आश्चर्यजनक बात तो यह है कि औषधि निर्माण में प्रयोग होने वाला मसुकदाना कभी खराब नहीं होता. एक कट्‌ठा ज़मीन में क़रीब दस किलो मसुकदाना तैयार होता है और इस प्रकार एक बीघा ज़मीन में दो सौ किलो उपज प्राप्त हो जाती है. कोलकाता से आए व्यापारी डेढ़ सौ रुपये प्रति किलो की दर से इसे खरीदते हैं. स्पष्ट है कि एक बीघा ज़मीन में क़रीब तीस हज़ार रुपये मूल्य की उपज हो जाती है और इसके विपरीत इसका लागत मूल्य मात्र एक हज़ार रूपए आता है. कन्हैया चंद्रवंशी की मानें तो मोर गांव के दर्ज़नों किसानों ने दो सौ से अधिक बीघा ज़मीन में इसकी खेती कर रखी है. हालांकि अ़फसोस जताते हुए कन्हैया चंद्रवंशी कहते हैं कि बिहार सरकार के कृषि रोड मैप में इस तरह की लाभप्रद खेती का न तो कहीं ज़िक्र है और न ही कृषि अधिकारी-वैज्ञानिक इसे प्रोत्साहित करते हैं. मोकामा बीडीओ राजेश कुमार भी इस खेती के लाभ को सुखद आश्चर्य मानते हैं और कहते हैं कि विभिन्न कृषि प्रशिक्षण शिविरों तथा ग्राम शिविरों के ज़रिए उसे प्रोत्साहित किया जाएगा.

2 comments:

  1. ज्ञानवर्धक प्रस्तुति

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  2. bahut achcha laga aapka ye blog...
    bharat ke gaono ki badalti tashweer dekh kar itna achcha laga...

    bahut aabhar aapka...

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