Saturday, February 12, 2011

सागर जिला : किसान गांव में ही रहे इसलिए…

Manoj Gupta-भारत कुमार
मध्य प्रदेश के सागर जिले के लोहे के व्यापारी मनोज गुप्ता जब वर्षों पहले शिशु मंदिर विद्यालयों से जुड़े हुए थे तो उन्हें एक चीज ने बड़ी टीस दी थी। वो ये कि जब विद्यार्थियों से मासिक स्कूल फीस के लिए कहा जाता तो अगले दिन वो अपने कक्षा अध्यापक से आकर कहते, ”पिताजी नेकहा है कि फसल तैयार होने पर उसे बेचकर सारे महीने की फीस एक ही साथ दे देंगे।”
मनोज गुप्ता को यह बात बड़ी कचोटती कि जो आदमी आदमी की सबसे आवश्यक जरूरत अनाज का उत्पादन करता है, जिसके बगैर आदमी के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती, उसे अपने बच्चे की फीस भरने और नई धोती खरीदने के लिए छ: महीने तक इंतजार करना पड़ता है। अन्य लोगों की तरह उसे हर महीने क्यों नहीं
आय प्राप्त होती? साल में केवल दो बार ही क्यों होती है?
इस तरह के प्रश्न मनोज गुप्ता के मन को बार-बार कुरेदते। वे सोचते रहते कि ऐसा क्या किया जाए जिससे किसान को अपना घर-बार छोड़ शहर की ओर पलायन न करना पड़े। बेटियों की शादी के लिए कर्ज न मांगना पड़े।
काफी समय गुजर जाने के बाद भी मनोज गुप्ता के मन से ये बातें धूमिल नहीं हुईं बल्कि काई की तरह जम गईं। वो चाहते थे कुछ करना लेकिन क्या, ये तय नहीं हो पा रहा था।
इसी बीच उनके मित्र प्रभात राज तिवारी  सागर जिले में जिला शिक्षा अधिकारी बन कर आये। मनोज गुप्ता मित्र होने के नाते अकसर उनसे मिलते-जुलते रहते। बात-बात में अपनी इच्छा भी जताते कि किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए वो कुछ करना चाहते हैं। प्रभात राज तिवारी ने इसे गंभीरता से लिया और दोनों सज्जनों ने मिलकर ‘चलें खेत की ओर’ नाम की एक परियोजना तैयार की।
इस परियोजना के अन्तर्गत राज्य के कृषि विद्यालयों को सुदृढ़ बनाना था। हर कृषि विद्यालय के पास 2 से लेकर 7 एकड़ तक जमीन होती है जिसे विद्यार्थियों के प्रैक्टिकल के लिए रखा जाता है। लेकिन आमतौर पर इन जमीनों का उपयोग विद्यार्थियों के लिए नहीं होता, बल्कि समाज के शक्तिशाली लोग गैर-कानूनी ढंग से इन्हें अपने कब्जे में लेकर खेती करवाते हैं और मुनाफा कमाते हैं।
मनोज गुप्ता और प्रभात राज तिवारी की सोच थी कि अगर वाकई में किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारनी है तो सबसे पहले हमें जिले के कृषि विद्यालयों पर ध्यान देना चाहिए जहां सैकड़ों नौजवान पढ़ रहे हैं। अगर हमने उन्हें यह सिखा दिया कि कृषि को लाभदायक तरीके से कैसे किया जाए तो उन्हें शहर जाकर रोजगार के लिए भटकना नहीं पड़ेगा। और दूसरा फायदा यह होगा कि उन्हें विशेष प्रकार से खेती-बाड़ी करते देख अन्य किसान भी प्रेरणा लेंगे।
इस परियोजना के तहत प्रदेश के 15  कृषि विद्यालय, 2 माध्यमिक विद्यालय और 3 ग्रामीण भारती विद्यालयों का चुनाव किया गया। योजना के अनुसार ऐसे विद्यालयों में ‘फार्म समन्वयकों’ जिन्हें सामान्य भाषा में प्रेरक कहा जाता है, की नियुक्ति की जानी थी। ये प्रेरक अपने विद्यालय के विद्यार्थियों को लाभकारी कृषि के तरीके सिखाते। इन तरीकों में था कि खेत में रोपे गये दो बीजों के मध्य अंतर को थोड़ा और बढ़ाया जाए।
आमतौर पर किसान अधिक उत्पाद के लालच में बीजों को नजदीक बोते हैं। लेकिन इससे पौधो को जितनी मात्रा में प्रकाश, हवा और पानी मिलना चाहिए उतनी मात्रा में ये सब चीजें मिल नहीं पातीं और नतीजा अधिक मेहनत लेकिन कम पैदावार। इसके अलावा मध्य प्रदेश में सोया बीन की खेती सदियों से काफी होती आई है। वहां के किसानों को इसके अलावा और कुछ सूझता ही नहीं, अगर ये बात कही जाए तो काफी हद तक ठीक होगी।
‘चलें खेत की ओर’ परियोजना में इस बात पर जोर था कि विद्यार्थियों को अरहर, मूंगफली जैसी अर्थ की दृष्टि से कामयाब अन्य फसलों की खेती भी सिखाई जाए। साथ ही खेती के लिए गाय के महत्व को भी स्वीकार करते हुए यह तय किया गया  कि प्रत्येक दो एकड़ की खेती के लिए एक गाय रखी जाएगी। उस गाय के मूत्र व गोबर इत्यादि चीजों से खाद व बीजों को परिष्कृत किया जाएगा। इसके अलावा अन्य कई उपयोगी तरीके परियोजना में शामिल किये गये।
इस परियोजना की परिकल्पना तैयार करते समय ‘जीरो बजट प्राकृतिक कृषि में अनाज की फसलें कैसे लें’ जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक के लेखक और कृषक सुभाष पालेकर से मनोज गुप्ता मिले थे और उन्हें अपने प्रयास के बारे बताया था। इस प्रयास को कामयाब कैसे बनाया जाए, इस बिंदु पर उन्होंने उनसे सुझाव भी मांगा था। सुभाष पालेकर ने कुछ अच्छे सुझाव दिये जिनका सम्मान किया गया।
तो ‘चलो खेत की ओर’ योजना तो बना ली गई। लेकिन, इसको साकार रूप देने के लिए धन की आवश्यकता थी। मनोज गुप्ता और प्रभात राज तिवारी ने इसके लिए मध्य प्रदेश सरकार से बात की। कुछ दिनों के प्रयासों और थोड़ी सी ना-नुकुर के बाद परियोजना सरकारी अधिकारियों द्वारा स्वीकार कर ली गई। सरकार की तरफ से परियोजना को एक साल तक चलाने के लिए दस लाख रुपये मिले।
2009 के शुरुआती महीनों में इस परियोजना को स्वीकृति मिली। स्वीकृति मिलते ही ऐसे फार्म समन्वयकों का चयन करना था जो अपने काम को पूरी निष्ठा से निभा सकें। यह काम तो मुश्किल था लेकिन मनोज गुप्ता  और प्रभात राज को इसमें कोई विशेष दिक्कत नहीं आई। वजह यह थी कि जब बाबू लाल गौर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने गोकुल गांव योजना चलाई थी।
इसके तहत कई गांवों में पुस्तकालय खोले गये थे। इन पुस्तकालयों का संचालक उस गांव में ही रहने वाला कोई व्यक्ति होता था। मनोज गुप्ता और प्रभात राज ने गोकुल गांव योजना को क्रियान्वित करने में अपना कुछ वक्त बिताया था। इस कारण उनका 35 संचालकों से परिचय स्थापित हो गया था। गौर के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद गोकुल गांव योजना का भी अंत हो गया था। अब उनके पास इतना समय था कि वो कोई दूसरा काम कर सकते थे।
मनोज गुप्ता और प्रभात राज ने सोचा कि फार्म समन्वयक या प्रेरक की जिम्मेदारी इन पुस्तकालय संचालकों को दी जा सकती है। उन्होंने इन लोगों को ‘चलें खेत की ओर’ परियोजना के बारे में बताया। योजना पर काम करने के लिए सभी लोग तैयार थे। मनोज गुप्ता ने फिर इन्ही में से ऐसे 15 लोगों का चयन किया जो इस काम को ईमानदारी के साथ निभा सकते थे। चयन के बाद सबको परियोजना में वर्णित विशेष कृषि का प्रशिक्षण दिया गया और उन्हें अलग-अलग विद्यालयों में नियुक्त किया गया। इनको 4 हजार रुपये प्रत्येक माह पारिश्रमिक भी दिया जाने लगा।
विशेष प्रशिक्षण हासिल किये हुए इन प्रेरकों ने जब विद्यार्थियों को क्लास रूम से निकाल कर खेतों में ले जाकर खेती का प्रशिक्षण देना शुरू किया तो कई विद्यार्थियों को दोगुनी खुशी हुई। पहली इसलिए कि इससे पहले प्रैक्टिकल खेतों की बजाए कक्षा में कागजों पर ही निपटा लिये जाते थे। दूसरी इसलिए कि उन्हें बेहतर तरीके से कृषि कैसे करें, यह सीखने का अवसर मिल रहा था।
विद्यार्थियों द्वारा विद्यालय की जमीन पर की जा रही अनूठी खेती की खबर आस-पास के किसानों तक भी पहुंची। कई गांव के किसान खेती में हो रहे अनूठे प्रयोगों को देखने के लिए आने लगे और अपने खेत में भी इन प्रयोगों को दोहराने का संकल्प लेकर जाने लगे। विद्यार्थियों में भी नया उत्साह उत्पन्न हुआ। उन्हें एहसास हुआ कि खेती से भी अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं की पूर्ति की जा सकती है।
लेकिन यह सब इतना आसान न था। इसमें मुश्किले भी काफी आईं। जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि विद्यालय के खेतों पर समाज के शक्तिशाली व्यक्तियों ने गैर-कानूनी ढंग से कब्जा कर रखा था। वो अपना कब्जा कैसे छोड़ते। पहले-पहल जब विद्यार्थी खेतों में खेती करने गये तो काफी विवाद हुआ। शिक्षा विभाग का लिखित आज्ञा-पत्र दिखाने के बावजूद वो जमीन छोड़ने को राजी नहीं हुए। बहारनपुर के विद्यालय की जमीन पर जिस व्यक्ति का कब्जा था वो शिक्षा विभाग में ही काम करता था।
मनोज गुप्ता ने जब उक्त जमीन पर विद्यार्थियों के साथ मिलकर जमीन को अपने उपयोग में लेने की कोशिश की तो उसने मनोज गुप्ता को फोन किया और खूब उल्टा-सीधा सुनाया। उसने यहां तक कहा कि तुम एनजीओ वाले चोर हो। साथ में मध्य प्रदेश की श्रेष्ठ गालियों में से एक का उच्चारण भी कर दिया। लेकिन मनोज गुप्ता इससे कहां भयभीत होने वाले थे। उन्होंने संघर्ष किया और न्याय को विजय दिलाई।
अपनी पराजय से क्षुब्ध हो उस शिक्षा विभाग के अधिकारी ने बहारनपुर के विद्यालय के प्रधानाचार्य को फोन किया और अपने पद का गलत उपयोग करते हुए उनसे कहा कि विद्यार्थियों को प्रयोग के लिए विद्यालय से एक भी पैसा न दिया जाए। विद्यार्थियों ने फिर कर्ज लेकर बीज बोये।
एक मामला तो ऐसा भी था जिसको सुलझाने के लिए पुलिस की भी मदद नहीं ली जा सकती थी क्योंकि वो व्यक्ति इंस्पेक्टर से भी ऊपर के पद पर विराजमान था। इस तरह की कई अड़चनें आईं जिनका सफलतापूर्वक सामना सब ने मिलकर किया। अति तो तब हुई जब विद्यालयों के प्रधानाचार्यों ने प्रेरकों से उनकी मासिक तनख्वाह में से अपना कमीशन मांगना शुरू किया। मनोज गुप्ता ने प्रेरकों से कह दिया कि किसी को कोई कमीशन देने की जरूरत नहीं है। कोई कुछ भी हमारा नुकसान नहीं कर सकता। इस साहसी रवैये के कारण भ्रष्टाचार के पुतलों को जलना पड़ा।
इस समय कुल 20 विद्यालयों में विद्यार्थियों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। सागर जिले में सबसे ज्यादा 8 केन्द्र हैं। रायसेन, बैतूल, हौशंगाबाद, इंदौर आदि जिलों में भी ‘चलें खेत की ओर’ का कार्य चल रहा है।
विद्यार्थियों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था करने के पश्चात मनोज गुप्ता ने ‘चलें खेत की ओर’ परियोजना को गैर-सरकारी स्तर पर विस्तार देते हुए इसे किसानों तक भी पहुंचाया। उन्होंने गांव-गांव में जाकर गोष्ठियां की और किसानों को बताया कि बेहतर कृषि कैसे की जाए। ऐसा नहीं है कि केवल मनोज गुप्ता ने ही इन किसानों को कुछ सिखाया, किसानों ने भी मनोज गुप्ता को काफी कुछ बताया। मनोज गुप्ता के सामने एक समस्या थी कि बीजों को अधिक फासले पर कैसे रोपा जाए।
बाजार में जो बीज गिराने वाली मशीनें उपलब्ध थीं वो कम दूरी पर बीज गिराती थीं। कम्पनी से कहकर नई मशीन बनवाना एक लम्बा काम था और छिद्र को वेल्डिंग करवा के बंद करवा देने से मशीन खराब हो जाती। एक किसान ने इसका इलाज बताते हुए कहा कि आप तीन छिद्रों में से बीच वाले छिद्र को खराब रेडियो के स्पीकर का चुंबक लगाकर बंद कर दें तो  उसमें से बीज गिरेगा ही नहीं। केवल दो छिद्रों से बीज गिरेगा जिनके बीच उतनी ही दूरी होगी जितनी अपेक्षा की जा रही है।
मनोज गुप्ता का लक्ष्य है कि वो हर किसान जिसके पास पांच एकड़ जमीन है उसे सालाना 2 से लेकर 2.5 लाख तक आमदनी हो। इसके अलावा खेतों में फल, सब्जियां व फसलें इस तरह से रोपी जाएं कि हर महीने उनके माध्यम से किसान को निश्चित रकम मिलती रहे। जिन किसानों के पास पांच एकड़ से कम जमीन है उनके लिए भी मनोज गुप्ता खेती की कुछ विधियां तैयार करने में लगे हुए हैं।
ऐसा नहीं कहा जा सकता कि मनोज गुप्ता का ध्यान केवल खेती पर ही है। वे दूसरी समस्याओं के प्रति भी पूरी तरह जागरुक हैं। इसका सबूत है मध्य प्रदेश की पहाड़ियों को हरा-भरा करने के लिए किया गया उनका प्रयास। यूं तो सरकार भी प्रयत्नशील है कि राज्य की पहाड़ियां, जो पेड़ों से रिक्त होती जा रही हैं, उन पर नए पौधे लगाए जाएं, ताकि पर्यावरण संतुलन बना रहे। लेकिन सरकारी प्रयासों में इस काम के लिए जितना श्रम और धन व्यय किया जाता है उसके अनुपात में परिणाम नहीं आ पाता।
परंपरागत खेती में सफल प्रयोग कर चुके मनोज गुप्ता वृक्षारोपण में नया प्रयोग करने से भला क्यों हिचकिचाते। उन्होंने इस दिशा में भी एक प्रयोग किया। मनोज गुप्ता ने पहाड़ियों पर पौधे रोपने के बजाए राज्य के प्रमुख पेड़ों के बीज भारी मात्रा में एकत्रित किये और उन्हें पहाड़ियों पर बिखेर दिया। पहाड़ियों की झाड़ियों में और उसके आस-पास खास तौर से बीज डाले गये। इसके पीछे मनोज गुप्ता का ये तर्क था कि किसी भी पौधे के विकास के लिए मिट्टी, सुरक्षा, नमी और जीवित वातावरण, इन चार चीजों का होना बहुत जरूरी है। जीवित वातावरण से उनका मतलब मक्खी-मच्छर इत्यादि जीवों से है। झाड़ियों में और उनके आप-पास ये चीजें सहज रूप से उपलब्ध रहती हैं। इसलिए पौधो के विकास की संभावना यहां अधिक हो जाती है।
पहाड़ियों पर बीज बिखेरने के कुछ महीने बाद जब सरकारी अधिकारियों के साथ मनोज गुप्ता ने पहाड़ियों का दौरा किया तो वे बड़े खुश हुए कि उनकी मेहनत व्यर्थ नहीं गई। सरकारी अधिकारी ने अनुमान लगाकर बताया कि तकरीबन एक लाख नये पौधे पहाड़ी पर उगे हैं। मनोज गुप्ता के इस नये तरीके से पौधों को ढोकर ले जाने, गङ्ढा खोदने, पानी देने आदि जैसे जरूरी काम भी नहीं करने पड़े और परिणाम भी उत्साहवर्धक रहा। नये पौधे खरीदने के लिए जो धन खर्च करना पड़ता है उसकी भी बचत हुई। रही बात बीज की तो वो तो मनोज गुप्ता के साथियों ने विभिन्न पेड़ों के नीचे से बीन लिये थे या फिर पेड़ों से झाड़ लिये थे।
मनोज गुप्ता के कार्य उन लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं जो लोग अपने क्षेत्र में कृषि और पर्यावरण पर काम करना चाहते हैं।

1 comment:

  1. श्री मनोज गुप्ता जी को मेरा प्रणाम |
    उत्तम जानकारी , अगर संभव हो तो मनोज जी ने जो स्वदेशी ढंग से फसल उगाई वो प्रति एकड़ कितनी रही कृपया बताइएगा |

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